प्रश्न. 1857 से पूर्व ब्रिटिश
साम्राज्य की न्यायपालिका की व्याख्या कीजिए ।
उत्तर -
कुछ
वर्षों तक तो अंग्रेजों ने भारत के समकालीन भारतीय प्रशासन कानून व न्यायिक
व्यवस्था का पालन किया । उनसे पहले हर धर्म व सामाजिक वर्गों का कानून रूढ़िवादी
परम्पराओं , शास्त्रों व रीति
- रिवाजों पर आधारित था । कम्पनी के शासन काल में सर्वप्रथम वारेन हेस्टिंग्स ने
कानूनी शिक्षा की नई प्रणाली प्रारम्भ की ।
1773 के रेगुलेटिंग एक्ट के अन्तर्गत उसने सर्वोच्च
न्यायालय की स्थापना की । कभी - कभी अंग्रेज कानून के आधार पर फैसला करते थे ।
परन्तु इसे न तो कम्पनी पसन्द करती थी और न भारतीय ही । 1781 तक ये कानून केवल
अंग्रेजों तक सीमित थे । परन्तु जब न्याय की सभी समस्याएँ हल नहीं हो सकी , तब 1793 में लॉर्ड
कॉर्नवालिस ने इसे स्थिरता प्रदान की ।
हर बड़े नगर में एक दीवानी कोर्ट की
स्थापना की गई , जिसका प्रमुख
जिलाधीश सिविल सर्विसेज़ का सदस्य होता था , जिसे 200 रु . तक के विवादों का फैसला करने का अधिकार
प्राप्त था । कॉर्नवालिस ने दीवानी न्यायाधीश व कलैक्टर के पदों का पृथक् - पृथक्
किया । जिला न्यायालय के विरुद्ध प्रादेशिक न्यायालयों में अपील की जा सकती थी ।
दीवानी व फौजदारी केसों की अन्तिम अपील सदर - ए - दीवानी कोर्ट तथा सदर निजामत
कोर्ट में क्रमश : की जा सकती थी । दोनों ही सुप्रीम कोर्ट कलकत्ता में थे ।
हिन्दू - मुस्लिम दोनों के कानूनों को लेकर दण्ड के लिए एक नई पुस्तक प्रकाशित हुई
। पुलिस व प्रशासनिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध न्याय नहीं मिलता था
। अधिकारीगण प्राय : अमीरों का पक्ष लेते थे । अंग्रेजों के भारत में आगमन से पहले
न्याय प्राप्त करना आसान तथा कम खर्चीला था , जो अधिक सामान्य
जनता की पहुँच के भीतर था । परन्तु अब न्याय प्राप्त करना अधिक खचीला तथा अधिक समय
लेने वाला हो गया था । अब न्याय तर्कों के आधार पर नहीं किया जाता था । केस को
तोड़ - मरोड़ कर एक अपराधी को निर्दोष एवं एक निर्दोष को अपराधी साबित किया जा सकता था । यदि
तर्क कमजोर होते थे , तो निर्दोष को फाँसी पर चढ़ना पड़ सकता था । एक
अच्छा वकील करना जो पूरी क्षमता से केस लड़ सकता हो , बहुत महगा पड़ता
था , जिससे गरीब आदमी वंचित रह जाता था । इस प्रकार एक धनी व्यक्ति कानून को खरीद सकता था ।