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Reasons of national awakening: Modern History




प्रश्न  . राष्ट्रीय जागृति के कारण क्या थे ?

उत्तर - 
( 1 ) ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा प्रशासनिक व आर्थिक एकता

गत एक हजार वर्ष के परतन्त्रता के काल में भारतीय जनता सदा स्वतन्त्र होने का संघर्ष करती रही । इस प्रयास में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय योद्धाओं ने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना की । इस प्रकार भारत विभिन्न छोटे - छोटे देशी व विदेशी शासकों के अधीन बंटा रहा । दूसरे हमारे पूर्वजों ने भारत में राजनीतिक तथा प्रशासनिक एकता स्थापित करने का विशेष प्रयास नहीं किया । उन्होंने शासकों व शासितों के लिए कुछ ऐसे मौलिक सिद्धान्तों की रचना की जो सभी काल व परिस्थितियों में समाज का मार्गदर्शन कर सकते थे । उन्होंने यह आशा की थी कि भारत के शासक व यहां की जनता इन मौलिक सिद्धान्तों का अनुसरण करेंगे । भारत  के विभिन्न क्षेत्रों में जो भी शक्तिशाली राज्य स्थापित हुए उसमें इन सिद्धान्तों व आदर्शों की स्थापना के लिए प्रयास होते रहे । इस प्रकार भारत में राष्ट्रीय एकता की स्थापना राजनैतिक आधार पर न करके सास्कृतिक धरातल पर की गई थी । यही कारण था कि भारत में सम्पूर्ण देश के लिए एकताबद्ध राजनैतिक व प्रशासनिक व्यवस्था का विकास नहीं हो सका । 
 ' अंग्रेजों ने भारत पर राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित करने के साथ - साथ न केवल प्रशासनिक एकता की स्थापना की बल्कि एक केन्द्र से सम्पूर्ण देश का आर्थिक नियन्त्रण भी किया । केन्द्रीय सरकार आर्थिक नीतियां बनाती व उन्हें कार्यान्वित करती थी । देश की सम्पूर्ण आय पर इसका नियन्त्रण था । केन्द्र में जो बजट बनता था उसी में प्रान्तों में किए जाने वाले व्यय की व्यवस्था होती थी । प्रान्तों में गर्वनरों की नियुक्ति की जाती थी जो गर्वनर जनरल के आदेशानुसार कार्य करते थे । प्रान्तों को कोई आर्थिक स्वायत्तता प्राप्त नहीं थी । 
1919 के अधिनियम में प्रान्तों में आय के सम्पूर्ण साधन संरक्षित विषयों में सम्मिलित थे .अत: धन के आय - व्यय पर केन्द्र का पूरा नियन्त्रण स्थापित था । 1935 के अधिनियम में यद्यपि प्रान्तों को आर्थिक स्वायत्तता प्रदान कर दी गई थी किन्तु गर्वनरों को विशेष अधिकार प्राप्त थे । दूसरे , इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रान्तीय सरकारों कोकाम करने का विशेष अवसर भी प्राप्त नहीं हुआ । इस कारण व्यवहार में सम्पूर्ण देश में एक केन्द्र से ही आर्थिक नीतियों को लागू किया ।
( 2 ) पाश्चात्य विचार एवं शिक्षा :
अंग्रेजों लोग भारतीय जनता को  ज्ञान देना चाहते थे । इसके दो कारण थे । पहले , वे भारतीय युवकों को अंग्रेजियत के रंग में रंगना चाहते थे जिसके कारण भारत के अग्रेजी शिक्षा प्राप्त युवक अंग्रेजी शासकों को अपना स्वामी स्वीकार कर ले और उनका अपना स्वाभिगान नष्ट हो जाए । दूसरे , उन्हें शासन तन्त्र को चलाने के लिए  निचले स्तर पर बाबुओं की आवश्यकता थी इस आवश्यकता की पूर्ति वे भारत के युवकों को अंग्रेजी की शिक्षा देकर करना चाहते थे । 
अंग्रेजी शिक्षा देने से अंग्रेजों ने अपने मन्तव्य में यद्यपि पूर्ण सफलता प्राप्त की किन्तु इसका । एक लाभ भारत को भी हआ । अंग्रेजी का अध्ययन करने के कारण भारतीय युवकों को पाश्चात्य साहित्य का तथा इतिहास का अध्ययन करने का भी अवसर मिला । उन्होंने बर्क  , स्पेन्सर , मिल तथा रूसो आदि दार्शनिकों तथा अनेक राजनीतिज्ञों के विचारों का अनुशीलन किया । अनेक भारतीय विद्यार्थी विदेशों में गए और वहाँ के इतिहास तथा राजनीतिक गतिविधियों का अध्ययन किया । जिसका परिणाम यह हुआ कि उनके मस्तिष्क में परतन्त्रता को उखाड़ फेंकने की भावना ने जन्म लिया ।
( 3 ) प्रेस तथा साहित्य की भूमिका :
भारत में राष्ट्रीय जागृति के लिए उत्तरदायी कारकों में उस काल की मुद्रण व्यवस्था तथा साहित्य विशेष महत्वपूर्ण है । जहां तक मुद्रण अर्थात प्रेस का सम्बन्ध है यद्यपि अठारहवीं शताब्दी के अन्त में ही कई समाचार - पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हो चुका था किन्तु 1885 ई . में कांग्रेस की स्थापना से पूर्व तक देश में देशी भाषाओं व अंग्रेजी के समाचार - पत्रों का जाल बिछ गया है । प्रारम्भ में मासिक , पाक्षिक तथा साप्ताहिक पत्र आरम्भ हुए और बाद में दैनिक समाचार - पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया । बंगाल पत्र - प्रकाशन  में अग्रणी था । बंगाल के ' बंगाल गजट ' , ' संवाद कौमुदी ' तथा ' मिरातुल अखबार प्रारम्भिक  पत्र थे । दादाभाई नौरोजी ने रस्ट गुतार ' तथा ईश्वरचन्द्रविद्यासागर ने ' सोम प्रकाश ' का प्रकाशन प्रारम्भ किया । इसी काल में जिन दैनिक समाचार - पत्र पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ उनमें अंग्रेजी के ' पायोनियर ' , " स्टेट्समैन ' , ' हिन्दू ' तथा ' अमृत बाजार पत्रिका ' प्रमुख थे । तिलक जी का महाराष्ट्र की जन - भाषा की पाक्षिक पत्रिका ' केसरी ' अत्यधिक लोकप्रिय हुई । इन पत्र - पत्रिकाओं ने समाज के शिक्षित वर्ग में जन - जागरण का महत्वपूर्ण कार्य किया । प्रेस के निरन्तर विकास ने राष्ट्रीयता की भावना का विकास किया । 
प्रेस के साथ - साथ इस काल के साहित्य सृजन ने भी राष्ट्रीयता के प्रभाव को जगाने का महत्वपूर्ण कार्य किया । साहित्यकारों ने अपने निबन्धों , लेखों , उपन्यासों व कविताओं आदि के माध्यम देश की पराधीनता का चित्र खींचा तथा स्वराज्य प्राप्ति के लिए जन - साधारण में चेतना उत्पन्न की । साहित्य के माध्यम से चेतना उत्पन्न करने वालों में बंकिम चन्द्र चटर्जी का नाम अग्रणी है । उनका लिखा ' आनन्द मठ ' उपन्यास , क्रान्तिकारियों के साथ मार्ग - दर्शक बन गया तथा सामान्य जनता में देश को स्वतन्त्र कराने के लिए प्रेरणा उत्पन्न की । इस उपन्यास में लिखे गए ' वन्देमातरम ' गान ने तो उन्हें अमर बना दिया क्योंकि यह गान देश भक्तों का स्वतन्त्रता मन्त्र बन गया था और स्वतन्त्रता के पश्चात इसे राष्ट्रगान के रूप में मान्यता प्राप्त हुई । 
इस काल के अन्य साहित्यकारों में  बगाल के रवीन्द्रनाथ टैगोर , मराठी के विष्णु शास्त्री , तमिल के सुबहमण्यम भारती , असम के लक्ष्मी नाथ तथा हिन्दी के भारतेन्दु हरिशचन्द्र विशेष उल्लेखनीय हैं । इन सभी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से देश - प्रेम की भावना जागृत की ।


( 4 ) भारत के अतीत की पुनः प्रतिष्ठा :
हमें ज्ञात है कि पिछले एक हजार वर्षों से भारत पर किसी - न - किसी विदेशी सत्ता का प्रभुत्व रहा था । यहां के लाग इन विदेशी शक्तियों से स्वतन्त्रता के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहे । इस संघर्ष में हम कई बार विजयी हुए और कई बार पराजित हुए किन्तु दुर्भाग्य से हम शत्रुओं को निर्णायक रूप में पराजित नहीं कर सके । अंग्रेजों ने हमारे इस पराभव का लाभ उठाकर हमें यह समझाने का प्रयत्न किया कि भारत सदा से विदेशी शक्तियों के अधीन रहा है । यहाँ के मूल निवासी समाप्त हो चुके हैं और जो आज हैं,  वे सब विदेशी हैं । अतः अंग्रेजों सहित सभी विदेशियों को मिलकर नए भारत में नई संस्कृति को जन्स देना है । 
अग्रेजों ने भारत के अतीत को झुठलाया तथा यहां के प्राचीन इतिहास के गडरियों की कहानिया कहकर उसके महत्व को कम करने का प्रयास किया जिससे भारत के लोग अपने अतीत से कट जाएं और अपने पूर्वजों को भूल जाएं । वे जानते थे कि यदि भारत की महान संस्कृति व उसके प्राचीन अतीत से भारत के लोगों को काट दिया जाए तो भारत में शासन करना सरल हो जाएगा । इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा सभ्यता व संस्कृति की श्रेष्ठता प्रतिपादित की और पाश्चात्य रंग में रंगे यहां के लोगों को सभ्य कहकर पुकारा । 
यद्यपि अंग्रेजों के इस प्रयास के परिणाम सामने आने लगे थे और भारतवासी न केवल पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति की ओर आकृष्ट हो रहे थे बल्कि अपने पूर्वजों को हेय दृष्टि से देखने लगे थे किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के धार्मिक , सामाजिक व सांस्कृतिक जागरण ने भारतवासियों में भारत के वैभवपूर्ण अतीत के प्रति गौरव उत्पन्न किया । धार्मिक क्षेत्र में कर्मकाण्ड को समाप्त करके सभी मतमतान्तरों के अनुयायी अपनी महान धार्मिक विरासत का गुणगान करने लगे , सामाजिक क्षेत्र की कुरीतियों को नष्ट करके निर्मल समाज स्थापित करने का बीड़ा उठाया गया तथा पाश्चात्य देशों के अनेक सद्गुणों से भारतीय समाज को विभूषित करने का अनेकों समाज सुधारकों ने प्रयास किया । इतना ही नहीं , एक ओर  स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदों के ज्ञान का प्रकाश फैलाया तो दूसरी ओर स्वामी विवेकानन्द ने न केवल भारत में बल्कि अमरीका व इंग्लैण्ड आदि पाश्चात्य देशों को हिन्दू संस्कृति की महानता से परिचित करवाया और हजारों की संख्या में वहां के लोग उनके अनुयायी बन गए । 
स्वामी जी ने गरज कर कहा था कि भारत के अतीत को जाने बिना भारत का उद्धार नहीं हो सकता और भारत का उद्धार हुए बिना संसार का कल्याण सम्भव नहीं है अत : भारत के युवकों को अपने अतीत को पढ़कर उससे प्रेरणा लेनी होगी तथा अपनी प्राचीन संस्कृति पर आधारित महान भारत का निर्माण करना होगा । सत्यं तो यह है कि शीघ्र ही उत्तर से दक्षिण , तथा पूरब से पश्चिम तक सम्पूर्ण भारत में भारत के अतीत के विभिन्न पक्षों को पुनः प्रतिष्ठित करने के प्रयास प्रारम्भ हो गए । इस महान प्रयास के परिणामस्वरूप भारत का अतीत मुखरित हो उठा और भारत के युवकों ने इस अतीत से प्रेरणा लेकर भारत को पुनः स्वतन्त्र कराने का महा प्रयास प्रारम्भ कर दिया ।
5. अंग्रेजों का जातीय अहंकार :
भारतवासियों में अग्रेजों के प्रति घृणा उत्पन्न करने तथा उनमें स्वाभिमान जागृत करने में अंग्रेजो के प्रति घृणा करने तथा उनमें स्वाभिमान कारक था । अग्रेजो ने सदैव अपने को भारतवासियों का स्वामी प्रकट किया । उनका दृष्टिकोण था कि भारतवासी असभ्य , दरिद तथा पिछड़े हुए व्यक्ति है जिन्हें सभ्य बनाने का दायित्व भगवान ने अग्रेजो को दिया है । वे अपने को श्रेष्ठ तथा भारतवासियों को निम्नकोटि का मानते थे अतः उनकी दृष्टि से भारतवासी अंग्रेजो की बराबरी नहीं कर सकते थे । पग - पग पर भारतीयों को अपनी हेय स्थिति का भान होता था । समान कार्य करने पर भी उन्हें अंग्रेजों से कम वेतन व सुविधाएँ मिलती थीं । भारतीय न्यायाधीश अंग्रेजों के मुकदमे नहीं सुन सकते थे जबकि अंग्रेज न्यायाधीश भारतीयों के मुकदमों का न्याय कर सकते थे । भारतीय लोग अंग्रेजी क्लबों में नहीं जा सकते थे , उनके बगीचों में भारतीयों व कुत्तों के प्रवेश पर निषेध था । स्वाभिमान पर चोट । करने वाले अंग्रेजों के ऐसे व्यवहार के कारण भारतवासियों में राष्ट्रीय चेतना जगी तथा वे । स्वाधीन होने केलिए प्रयास करने लगे ।
( 6 ) इण्डियन सिविल सर्विस के कारण असन्तोष :
सन 1869 ई . में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने आई . सी . एस . परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु  उन्हें नौकरी में नहीं लिया गया । बंगाल में इसका   विरोध हुआ जिसके परिणामस्वरूप क्वीन्स बेच डिविजन में उनके मामले पर विचार हुआ और निर्णय उनके पक्ष में दिया गया । उन्हें मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त किया गया किन्तु दो वर्ष पश्चात पुन निकाल दिया गया । इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ा । 
श्री बनर्जी पुनः इंग्लैण्ड गए और उन्होंने बरिस्ट्री पास की । भारत आकर उन्होंने एक राजनीतिक संस्था ' इण्डियन एसोसिएशन ' की स्थापना की जिसकी ओर पढ़े - लिखे लोग आकर्षित हुए । भारत मंत्री ने इण्डियन सिविल सर्विस . जिसकी परीक्षा इग्लैण्ड में होती थी , में सम्मिलित होने की आयु 21 से घटाकर 19 वर्ष कर दी जिसके कारण भारतीय विद्यार्थियों के लिए इसकी परीक्षाओं में बैठना कठिन हो गया । इसका देशयापी विरोध हुआ और श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिला |

7.दिल्ली दरबार
लार्ड लिटन क शासन काल अनेक विस्फोटक घटनाओं से भरा पड़ा है । 1877 ई . में देश में अकाल पड़ रहा था और लाखों भारतवासी इस प्रकोप से ग्रस्त थे । लार्ड लिटन को अकाल से ग्रसित जनता की चिन्ता तो करना दूर रहा बल्कि  उसने जले पर तेल  छिड़कने का काम किया । 1877 ई . में दिल्ली में एक शाही दरबार का आयोजन किया गया जिसमें महारानी विक्टोरिया को आमन्त्रित कर भारत साम्राज्ञी की उपाधि से विभूषित किया गया । उस कार्य में करोड़ों रुपए की होली जलाई गई । भारत में सरकार के इस कार्य का घोर । विरोध हुआ और असन्तोष की भावना फैली ।
( 8 ) वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट :
धीरे - धीरे देश में अनेक समाचार - पत्र भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने लगे थे । ये पत्र देश की शिक्षित जनता में अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध असन्तोष उत्पन्न करने का प्रयास करते थे । बंगाल में समाचार पत्रों का सबसे अधिक प्रकाशन हो रहा था । शिक्षित जनता में  असन्तोष की भावना से भयभीत अंग्रेज सरकार ने वर्नाक्युलर  प्रेस एक्ट , 1878  के द्वारा प्रेस की स्वतन्त्रता छीनने का प्रयास किया किन्तु सरकार के इस प्रयत्न  का सर्वत्र विरोध हुआ । विरोध सभाएं आयोजित की गई । धीरे - धीरे असन्तोष इस सीमा तक पहुंच गया कि चार वर्ष के अल्पकाल में ही सरकार को इस एक्ट को निरस्त करना पड़ा |
( 9 ) आर्म्स  एक्ट :
भारतीय जनता अपने पास शस्त्र रखने में गर्व अनुभव करती रही है । आपत्ति के समय में अपना शस्त्र अपनी रक्षा करता था । किन्तु अग्रेज सरकार इससे भयभीत थी । वह भारतीय जनता के पास हथियारों के होने को शंका की दृष्टि से देखती थी अतः सरकार ने आर्म्स एक्ट  के द्वारा सरकार से बिना लाइसेंस लिए अस्त्र रखने पर पाबन्दी लगा दी । इस एक्ट का भारतीय जनता पर विपरीत प्रभाव पड़ा ।
(10 ) पराधीनता का अनुभव :
मनुष्य के लिए पराधीनता सबसे बड़ा अभिशाप है । वह उसे भी स्वीकार नहीं कर सकता किन्तु यदि उसे उसकी पराधीनता अवस्था का बार - बार अनुभव कराने वाली परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाएं तो वह अपनी पूर्ण शक्ति से उस पराधीनता को समाप्त करने के लिए कमर कस लेता है . भारतीय जनता की भी यही अवस्था थी । वह इस पराधीनता के बन्धन को तोड़ने के लिए कटिबद्ध था । शासन व शासित का अन्तर बढ़ाया जा रहा था , जिसका परिणाम यह हुआ कि सर्वत्र असन्तोष उत्पन्न हो गया ।
( 11 ) धार्मिक सुधारकों के प्रयास :
धार्मिक सुधार आन्दोलन ने भारतीय जनता की भावनाओं को आन्दोलित कर दिया था । एक ओर इन आन्दोलनों ने और दूसरी ओर इन सुधारकों ने राष्ट्रीयता के घाव भरे । स्वामी दयानन्द स्वामी ने तो स्पष्ट रूप से स्वाधीनता का बिगुल बजाया । स्वामी विवेकानन्द जी ने न केवल विदेशों में जाकर हिन्दू - धर्म की महानता की घोषणा की बल्कि भारतीय समाज को उठकर खड़ा होने और कमर कसकर पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ डालने का आवाहन भी किया । इस प्रकार धार्मिक सुधार आन्दोलन ने भारत में राष्ट्रीय भावना को जगाया ।  
( 12 ) आर्थिक शोषण :
अंग्रेजों ने अपने शासन के प्रारम्भिक काल से ही भारतीय जनता का आर्थिक शोषण प्रारम्भ कर दिया था । यह बात सर्वविदित है कि अंग्रेज भारत में व्यापार करने आए थे किन्तु भारत की अचेत अवस्था का लाभ उठाकर उन्होंने अपना राज्य भी स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया और धीरे - धीरे सम्पूर्ण भारत के स्वामी बन बैठे । उस अवस्था का अंग्रेजों ने अपने मूल उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पूरी तरह उपयोग किया । भारत के उद्योग - धन्धे नष्ट किए गए और भारतीय बाजारों में अंग्रेजी विदेशी माल ही दिखाई जाने लगा । उद्योगपतियों से लेकर मजदूर  बेकार हो गए । व्यापार चौपट हो गया । अंग्रेज अपने माल को मनमाने दामों पर बेचते थे । इसका परिणाम यह हुआ कि समृद्ध भारत गरीब बन गया और यहां गरीबी , बेकारी तथा भुखमरी का साम्राज्य स्थापित हो गया । दूसरे , भारत में प्रशासनिक - व्यय इतना बढ़ गया कि गरीब भारत इसको सहन न कर सका । हजारों की संख्या में अंग्रेज ऊंचे - ऊंचे वेतनों पर नियुक्त किए गए । समान पदों पर नियुक्त अंग्रेजो व भारतीयों के वेतन में बहुत अन्तर रखा गया । इसके कारण भी असन्तोष उत्पन्न हुआ ।
( 13 ) यातायात के साधनों का विकास :
रेल , डाक तार तथा टेलीफोन आदि के विकास ने भी राष्ट्रीय जागृति में बड़ा योगदान दिया । भारत के एक स्थान पर रहने वाले व्यक्ति दूसरे स्थान पर सुगमता से आ जा सकते थे और सम्पूर्ण भारत की एकात्मकता के दर्शन कर सकते " थे । राजनीतिक नेता सुविधापूर्वक देश भ्रमण कर सकते थे ।
( 14 ) अन्य देश के सफल राजनैतिक आन्दोलनों का प्रभाव :
इसी समय संसार के अनेक परतन्त्र देश स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन कर रहे थे । यूनान , तुर्की तथा इटली आदि देशों में स्वतन्त्रता संग्राम की सफलता ने भारतीयों में भी आत्मविश्वास उत्पन्न किया । 1904 ई . में जब जापान जैसे छोटे देश ने रूस जैसे विशाल देश को पराजित कर दिया तब भारतीयों के मन में यह विचार उठना स्वाभाविक ही था कि भारत में संगठित होकर हम भी विदेशियों को बाहर निकाल सकते हैं । उन्नीसवीं शताब्दी में ही जर्मनी , इटली , रुमानिया , सर्विया तथा मान्टिनीग्रो का एकीकरण हुआ । इंग्लैण्ड में भी इस समय सुधार अधिनियम पारित हुए और फ्रांस में तृतीय गणराज्य की स्थापना हुई । इसी समय अमरीका में गुलामों को मुक्त किया गया । इन सब घटनाओं ने भारतीय युवकों के मस्तिष्क में भारत की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने । की भावना को जन्म दिया ।
( 15 ) 1857 ई . का स्वतन्त्रता संग्राम :
सम्पूर्ण भारत की जनता अपने भेदभाव भुलाकर विदेशी शासन को समाप्त करने के लिए जिस प्रकार 1857 ई . में तैयार हुई उसने भारतीय युवको को विशेष रूप से क्रान्तिकारियों को बहुत स्फूर्ति दी । यद्यपि यह स्वतन्त्रता संग्राम असफल हो गया किन्तु भारतवासियों के हृदय में सदा के लिए स्वतन्त्रता के बीज बो गया ।
( 16 ) इलबर्ट बिल आन्दोलन :
अंग्रेजों के शासन काल में शासक वर्ग और शासित वर्ग मे  बहुत अधिक भेदभाव विद्यमान था । उदाहरणस्वरूप , यूरोपियन का मुकद्दमा केवल यूरोपियन के जजों की अदालत में ही चलाया जा सकता था । उच्च श्रेणी के भारतीय जज भी अंग्रेजों के विरुद्ध मुकदमें  नहीं सन सकते थे । इस भेदभाव को समाप्त करने के लिए लार्ड रिपन के  कानूनी सदस्य श्री इलबर्ट ने वायसराय  की कौंसिल में एक बिल रखा जिसमें कहा गया था कि भारतीय जज भी अंग्रेजों के विरुद्ध मुकद्दमों की सुनवाई कर सकते हैं । भारत में विद्यमान सम्पूर्ण अंग्रेज समाज ने उसका विरोध किया । उन्होंने अपने को संगठित करने के लिए एक डिफेंस एसोसिएशन बनाई और धन एकत्रित किया । 
संगठित रूप में उन्होंने वायसराय की कौंसिल पर इस बिल को पास न करने का दबाव डाला । लार्ड रिपन की सरकार इस आन्दोलन का सामना न कर सकी और इसे एलबर्ट बिल वापस लेना पड़ा । इस आन्दोलन के कारण भारतीयों के मस्तिष्क पर दो प्रभाव पड़े । पहला , यह कि अब वे  समझ गए कि शासक और शासित वर्ग में कितना बड़ा भेदभाव होता है । दूसरे , बिना संगठित प्रयास के किसी कार्य में सफलता प्राप्त करना सम्भव नहीं है । स्वतन्त्रता के आन्दोलन को चलाने के लिए किसी संस्था की आवश्यकता अनुभव की गई जिसकी पूर्ति अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के द्वारा हुई ।