लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
- भारत के द्वितीय शिवाजी तथा स्वतंत्रता संग्राम के सिद्ध महात्मा ' ( Prophet Hero ) लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 23 जुलाई , 1856 को महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण परिवार में अन्धकार में प्रकाश ज्योति की तरह जन्म लिया | अभिमन्यु की तरह , उनमें सहज प्रतिभा ( Inborn Skill ) तथा संघर्ष के लिए साहस का असीम भण्डार था | अपनी निःस्वार्थ देशभक्ति , अदम्य साहस स्वतंत्र एवं सबल राष्ट्रीय प्रवृत्ति के कारण वे न केवल उग्र राष्ट्रवाद की त्रिमूर्ति ( पंजाब केसरी लाला लाजपत राय , तिलक , विपिन चन्द्र पाल ) के अभिन्न घटक थे , अपितु स्वतंत्र भारत के महान् निर्माताओं में से एक थे | 1879 में विधि की डिग्री लेने के बाद तिलक जी ने क्षेत्रीय स्तर के बजाय राष्ट्रीय स्तर पर चिन्तन करना आरम्भ किया | शिक्षा के राष्ट्रीय महत्व को वे अच्छी तरह समझते थे | अतः उन्होंने भारत के स्वर्णिम भविष्य की दिशा में अपने मित्र आगरकर व चिपलूणकर के सहयोग से 1 जनवरी 1880 को पूना में ' न्यू इंगलिश स्कूल ‘ की स्थापना की , जिसका उद्देश्य युवक - युवतियों को सस्ती राष्ट्रीय शिक्षा देना था |
- इसके अतिरिक्त वे ' दकन ऐजूकेशन सोसाइटी तथा फर्गुसन कॉलेज , पूना के संस्थापकों में से थे | अपने विचारों को सार्वजनिक रंग देने के लिए उन्होंने दो साप्ताहिक पत्र - मराठी भाषा में ' केसरी ' तथा अंग्रेजी भाषा में ' मराठा ' प्रकाशित किए , जिनके माध्यम से उन्होंने 1880 से जीवनपर्यन्त प्राकृतिक अधिकार , राजनीतिक स्वतंत्रता व न्याय के सिद्धान्तों को जन - जन तक पहुँचाया |
- फ्रांस की क्रान्ति के प्रथम शताब्दी वर्ष ( 1889 ) में तिलक जी का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रवेश एक युग परिवर्तनकारी घटना है | प्रारम्भ में , जैसा कि प्रायः होता है , वे उदारवादियों की प्रार्थना - पत्र , स्मृति - पत्र व प्रतिनिधिमण्डल की कार्यविधि को परिवर्तित करने में सफल न हो सके , लेकिन वे आशावादी बने रहे और अन्ततः कांग्रेस में उग्रवाद के अग्रदूत और जीवन शक्ति के सोत बन गए | देश प्रेम की लौ को सदैव प्रकाशमान रखने के लिए तिलक जी ने अपने उग्र विचारों को ध्वनि तरंगों की तरह यत्र - तत्र - सर्वत्र फैलाने के लिए प्रयास करने आरम्भ किए | महाराष्ट्र में उन्होंने इसी संदर्भ में गौहत्या विरोधी सोसाइटियाँ , अखाड़े और लाठी क्लब खोले , जिससे वहाँ के सभी हिन्दू अपना जीवन बलिदान करने हेतु पीछे न हटें | नवयुवकों में उत्साह व साहस बढ़ाने के लिए उन्होंने ' गणपति उत्सव ' संगठित किया | प्रत्येक वर्ष यह उत्सव दुगने उत्साह से मनाया गया और परिणामतः लाखों महाराष्ट्रवासी एक मंच पर एकत्रित हुए | एकता के सूत्र को और अधिक मजबूत करने के लिए उन्होंने 1895 में ' शिवाजी उत्सव ' आरम्भ किया , जिसके आशानुकूल परिणाम निकले | तिलक जी का उदारवादियों की राजनीतिक भिक्षावृत्ति की नीति में कदापि विश्वास नहीं था | उनका कहना था - " हमारा आदर्श दया याचना नहीं , आत्मनिर्भरता है | अंग्रेजों की न्यायप्रियता में भी उनका कोई विश्वास नहीं था |
- उग्रवादियों के साधन ' बहिष्कार , स्वदेशी व राष्ट्रीय शिक्षा ' थे | तिलक जी का मानना था कि ‘ महान उद्देश्य ( पूर्ण स्वराज्य ) ' की प्राप्ति के लिए , सभी साधन न्यायोचित हैं | यही कारण है कि उन्होंने शिवाजी द्वारा अफजल खाँ की हत्या ( 1659 ) को न्यायोचित ठहराया | संक्षेप में , उनकी नीति जैसे को तैसा की थी | वे भारत में ब्रिटिश शासन व्यवस्था में सुधार नहीं , बल्कि स्वशासन ’ चाहते थे | उनका हृदय सदैव स्वतंत्रता के लिए धड़कता था तथा उसकी प्राप्ति के लिए अपने जीवन रक्त का बलिदान भी कर सकते थे | यही कारण है कि उन्हें भारतीय अशान्ति का जनक ' कहा जाता है |
- तिलक बॉस के वृक्ष की तरह नहीं थे कि जिस ओर हवा बहे , उधर ही झुक जाए | वे अपने उग्र विचारों पर दृढ़ थे , लेकिन इसकी कीमत उन्हें 1897 में चुकानी पड़ी , जब उन्हें 18 माह का कठोर कारावास मिला | तिलक त्याग की प्रतिमूर्ति थे , अतः उन्होंने विदेशी आधिपत्य के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया और नए उत्साह के साथ अपने पथ पर बढ़ते गए | ' केसरी ' में प्रकाशित लेखों के आधार पर उन्हें पुनः 1908 में 6 वर्ष का कारावास मिला | बर्मा में माण्डले की जेल का 20x12 फीट का कमरा तिलक जी के आन्तरिक गुणों को उद्घाटित करने में काफी सफल रहा | 1914 तक के कारावास में ही उन्होंने ' गीता रहस्य ' तथा ' दि आर्कटिक होम ऑफ दि वेदाज ' जैसे ग्रन्थों की रचना की , जिनसे हमें उनकी विद्वता , ऐतिहासिक शोधवृत्ति तथा उत्कृष्ट विचारों का परिचय मिलता है | उनका ' दि ओरियन ' नामक अन्वेषणात्मक ग्रन्थ तो सम्पूर्ण यूरोप में विद्वता की धाक जमाने में सफल रहा |
- यह सत्य है कि तिलक की अनुपस्थिति में महाराष्ट्र में उग्रवादी आन्दोलन ठण्डा पड़ गया था , लेकिन जब मार्च 1916 में लोकमान्य तिलक ने ‘ महाराष्ट्र होमरूल लीग ' की स्थापना की तो खोई हुई चेतना पुनः जाग उठी | 6 माह बाद 1 सितम्बर , 1916 को आयरिश महिला एनी बीसेन्ट ने मद्रास में ' अखिल भारतीय होमरूल लीग ' की स्थापना की , सम्पूर्ण भारत में इन दोनों प्रवर्तकों की प्रचार यात्राएं विजय यात्राओं में परिवर्तित हो गईं और देश के वातावरण में बिजली सी दौड़ पड़ी |
- इसी समय तिलक जी का प्रभावशाली नारा गुंजा - स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा | तिलक जी का यह कहना था कि प्रगति स्वराज्य में निहित है | स्वराज्य के अभाव में न तो औद्योगिक प्रगति सम्भव है और न ही राष्ट्र के लिए उपयोगी शिक्षा व्यवस्था | प्रायः यह कहा जाता है कि तिलक जी ने समाज सुधार कार्यों का विरोध किया , लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है | उन्होंने मात्र इतना कहा ( जो तर्कसंगत भी है ) कि वर्तमान परिस्थितियों में समाज सुधार से अधिक महत्वपूर्ण कार्य भारतीय स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करना है | उनका विचार था कि समाज सुधार का कार्य जन चेतना के आधार पर किया जाना चाहिए , कानूनों के माध्यम से नहीं | 25 मार्च , 1918 को बम्बई में दलित जाति सम्मेलन में तिलक ने कहा था , यदि ईश्वर भी अस्पृश्यता को सहन करे , तो मैं उसे ईश्वर के रूप में स्वीकार नहीं करूंगा | सामाजिक समस्या के साथ - साथ उन्होंने आज की ज्वलन्त समस्या ' राष्ट्रभाषा ' पर भी विचार प्रकट किए | तिलक यह सुझाव रखने वाले प्रथम कांग्रेसी नेता थे कि देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा हो |
- लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ( 1856 1920 ) की भारतीय जनता को सबसे बड़ी देन उनका ' अवज्ञा का दर्शन ' है | इसी दृष्टि से उन्हें भारतीय चेतना का जनक कहा जाता है | भारत मंत्री मान्टेग्यू ने ठीक ही कहा था , भारत में केवल एक ही अकृत्रिम उग्र राष्ट्रवादी था और वह थे - तिलक | वास्तव में देखा जाए तो वे महात्मा गांधी के अग्रदूत थे | लगान न देने का आन्दोलन , सरकारी नौकरियों का बहिष्कार , शराबबन्दी तथा स्वदेशी जैसे आन्दोलन जो गांधीजी ने चलाए थे , तिलक पहले ही इन पर प्रयोग कर चुके थे | उनका जीवन दिव्य था | इसी कारण से देशवासियों ने उन्हें न केवल ' लोकमान्य ' की उपाधि दी वरन् उन्हें तिलक भगवान कहकर भी पुकारा | उनकी पुण्य तिथि ( 1 अगस्त ) पर उन्हें सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी कि हम सदैव साम्प्रदायिक सदभाव तथा राष्ट्रीय एकता से प्रेरित उनके प्रेम को अपने हृदय में जीवित रखें |
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