महात्मा गांधी को शांति का Nobel पुरस्कार क्यों नहीं मिला?
1901 में शुरुआत के
बाद से शांति के क्षेत्र में 98 Nobel पुरस्कार प्रदान किये जा चुके
हैं | प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को ये
पुरस्कार दिए जाते हैं |
पुरस्कार देने की
शुरुआत जीन हेनरी ड्यूनेन्ट से की गई जो रेड क्रॉस के संस्थापक थें | 19 बार नोबेल पुरस्कारों की घोषणा नहीं की गई, जबकि 27 बार इन पुरस्कारों के लिए किसी व्यक्ति को योग्य नहीं समझा गया बल्कि किसी संस्था को देना ठीक समझा गया |
प्रत्येक वर्ष इस पुरस्कार की घोषणा के पहले या बाद में इंडिया में इस बात की बहस होती है कि महात्मा गांधी को यह
पुरस्कार क्यों नहीं प्रदान किया गया जो आधुनिक युग के शांति के सबसे बड़े दूत समझे जाते हैं |
Nobel कमेटी ने इस बात पर कभी कोई टिप्पणी नहीं की इसलिए लोगों का यह ख़याल रहा है कि Nobel कमेटी गांधी को
इस पुरस्कार से सम्मानित कर अंग्रेज़ी हूकुमत को नाराज नहीं करना चाहती थी |
लेकिन हाल ही में
कुछ दस्तावेज़ों से यह स्पष्ट हुआ है कि Nobel कमेटी पर इस तरह
का कोई भी दबाव अंग्रेजी सरकार की तरफ़ से नहीं था |
गांधी जी चार बार
नामांकित हुए
महात्मा गांधी को
Nobel शांति पुरस्कार के लिए चार बार नामांकित किया
गया |
इन्हें लगातार वर्ष 1937, 1938 और 1939 में नामांकित
किया गया था | इसके
बाद वर्ष 1947 में भी उनका
नामांकन किया गया |
फिर आख़िरी बार
इन्हें 1948 में उन्हें
नामांकित किया गया लेकिन महज़ चार दिनों के बाद नाथू राम गोडसे ने उनकी हत्या कर दी |
नॉर्वे
के एक सांसद ने पहली बार उनका नाम सुझाया था लेकिन पुरस्कार देते समय उन्हें Ignore कर
दिया गया |
उस समय के उपलब्ध
दस्तावेज़ों से पता चलता है कि Nobel कमेटी के एक
सलाहकार जैकब वारमुलर ने इस बारे में अपनी टिप्पणी लिखी है |
- उन्होंने लिखा है कि वह अहिंसा की अपनी नीति पर हमेशा क़ायम नहीं रहे और उन्हें इन बातों की कभी परवाह नहीं रही कि अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ उनका अहिंसक प्रदर्शन कभी भी हिंसक रूप ले सकता है |
गांधी जी को पुरस्कार देने में क्या समस्या आ गयी थी ?
1948 में ख़ुद क्वेकर
ने इस पुरस्कार के लिए गांधी का नाम प्रस्तावित किया |
नामांकन की
आख़िरी तारीख़ के महज़ दो दिन पूर्व गांधी की हत्या हो गई | इस समय
तक Nobel कमेटी को गांधी के पक्ष में पांच संस्तुतियां
मिल चुकी थीं |
लेकिन तब समस्या
यह थी कि उस समय तक मरणोपरांत किसी को Nobel पुरस्कार नहीं
दिया जाता था | हालांकि इस समय
इस तरह की क़ानूनी गुंजाइश थी कि विशेष हालात में यह पुरस्कार मरणोपरांत भी दिया
जा सकता है | लेकिन कमेटी के
समक्ष तब यह समस्या थी कि पुरस्कार की रक़म किसे अदा की जाए क्योंकि गांधी का कोई
संगठन या ट्रस्ट नहीं था | उनकी कोई जायदाद भी नहीं थी और न ही इस संबंध
में उन्होंने कोई वसीयत ही छोड़ी थी |
हालांकि यह मामला
भी कोई क़ानूनी पेचीदगियों से भरा नहीं था जिसका कोई हल नहीं होता लेकिन कमेटी ने
किसी भी ऐसे झंझट में पड़ना मुनासिब नहीं समझा | तब हालत यह हो गई
कि 1948 में Nobel पुरस्कार किसी को भी नहीं दिया गया |
1948 में किसी अन्य को नोबेल पुरस्कार के लिए योग्य नहीं समझा गया | अगर गांधी जी उस समय जीवित रहते तो यह पुरस्कार उन्हें ही मिलता |
नोबेल समिति ने गंवा दिया मौका
कमेटी में अपनी
प्रतिक्रिया में जो कुछ लिखा है उससे यह आभास होता है कि अगर गांधी की अचानक मौत
नहीं होती तो उस वर्ष का Nobel पुरस्कार उन्हें
ही मिलता |
कमेटी ने कहा था
कि किसी भी ज़िंदा उम्मीदवार को वह इस लायक़ नहीं समझती इसलिए इस साल का Nobel इनाम किसी को भी नहीं दिया जाएगा |
इस बयान में
ज़िंदा शब्द ध्यान देने योग्य है | इससे इशारा मिलता है कि मरणोपरांत अगर किसी को
यह पुरस्कार दिया जाता तो गांधी के अलावा वह व्यक्ति और कौन हो सकता है |
आज यह सोचने पर
मजबूर होना पड़ता है कि क्या गांधी जैसी महान शख़्सियत Nobel पुरस्कार की मोहताज थी |
इस सवाल का
सिर्फ़ एक ही जवाब है कि गांधी की इज़्ज़त और महानता Nobel पुरस्कार से भी बड़ी थी |
अगर Nobel कमेटी उन्हें यह पुरस्कार देती तो इससे उसी की
शान बढ़ जाती | लेकिन Nobel कमेटी ने यह अवसर गंवा दिया |